रविवार, जुलाई 08, 2007

मेरी वापसी

मैं क्षमाप्रार्थी हूँ आपलोगों का कि मैंने ब्लॉग-लेखन आरंभ कर दिया परन्तु बीच में ही विराम लग गया। बात ही ऐसी हुई कि मैं पहले थोङा व्यथित, और बाद में व्यस्त हो गया था।

एम. सी. ए. के दौरान, कैम्पस से मेरा चयन तो गूगल के लिए हुआ था, पर गूगल से मुझे कहा गया कि हमलोग आपको आपके अन्तिम परीक्षा के बाद ज्वायन करने के लिए बुलाएँगे। मुझे बुलाया तो गया, पर उन्होंने दुबारा मुझसे जाँच-परीक्षा व साक्षात्कार के कुल मिलाकर 6 राउंड्स लिए। और अंततः मेरा चयन न हुआ। उसका मुझे दुःख तो हुआ, मगर मैंने फिर घर से कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम करना आरंभ कर दिया। अकेले ही कई वेबसाईटों एवं वेब आधारित तंत्रों का विकास किया। http://www.krrishholidays.com/ व इसका आंतरिक प्रबंधन तंत्र उनमें से एक है, जो काफी वृहद एवं मेरा पसंदीदा है।

इसी दौरान मुझे दुर्ग अभियन्ता (Garrison Engineers), गोलकोण्डा, हैदराबाद, भारतीय थल सेना की तरफ से परियोजना प्रबंधक (Project Manager) की नौकरी (निबन्धन के अन्तर्गत) का प्रस्ताव मिला। मैंने तत्काल काम करना शुरू कर दिया। यहाँ मुझे चौथे विश्व सैनिक खेलों - 2007 के लिए 'गेम विलेज' विकसित करने की परियोजना का प्रबंधन करना था। काम को मैंने बख़ूबी अंजाम दिया और निर्धारित समय-सारणी से काफी पीछे चल रहे कार्य को नियत समय के समतुल्य लाने में अपनी भूमिका निभायी।

कुछ समय बाद ebates.com से मुझे technical producer की नौकरी के लिए प्रस्ताव प्राप्त हुआ। और मई 23 २००७ से मैंने वहाँ अपनी सेवा देनी शुरू की........

अब समय निकाल कर मैं चिट्ठा लिखना जारी रखूँगा।

परिचय

कुछ समस्याओं की कारण मैं यह लेख दुबारा प्रकाशित कर रहा हूँ।
चिट्ठा लिखना शुरू किया है तो.....मैंने सोचा कि क्यों न सरल हिन्दी में ही लिखा
जाय और लोगों से अपने आप का परिचय करवाऊँ।


मैं तो यूँ बिहार के नालन्दा जिले के एक ऐसे छोटे से गाँव से हूँ, जहाँ आजतक कोई पक्की सङक नहीं पहुँची, न ही विद्युतापूर्ति ही है। मैंने बचपन में वहीं पढ़ाई की, बाद में समीप के गाँव के उच्च विद्यालय में दाखिला लिया। मैं आठवीं कक्षा तक वहाँ पढ़ा, जबतक मेरे पिताजी उसी उच्च विद्यालय में सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत थे। 1995 में उनका स्थानांतरण पटना जिले के आनन्दपुर गाँव (राष्ट्रीय राजमार्ग 31 पर मनेर और बिहटा के बीच) में स्थित उच्च विद्यालय में कर दिया गया। 1996 में मैं भी उनके साथ ही रहकर नौवीं और दसवीं की पढ़ाई की। पढ़ाई कम की और पाक-कला में महारत अधिक प्राप्त की। 1998 में बिहार माध्यमिक परीक्षा पास की।

मैं एक साधारण या यूँ कहें कि अनाकर्षक व्यक्तित्व का मालिक हूँ, हमेशा औपचारिक (फॉर्मल) पोशाक धारण करनेवाला (चाहे कोई भी मौका हो)। हमारे सहपाठीगणों में से अधिकतर इन मामलों में मुझसे बिल्कुल उलट हैं, वे नियमित रूप से नये फैश़न वाले पोशाकों की ख़रीददारी में विश्वास करते हैं। कॉलेज में कभी भी फॉर्मल में जाते हुए उन्हें नहीं देखा। बिना क्रीम-पावडर लेपे हुए या बिना इत्र अथवा डियोड्रेन्ट के घर से बाहर नहीं निकलते। मुझे भी उनके द्वारा ऐसा करने की सलाह मिलती रहती है, पर मैं तो साफ कहता हूँ कि भई मुझसे ये लिप्सिटिक, सिन्दूर लगाना नहीं हो सकता। मैं इस मेकअप पर समय व्यर्थ नहीं कर सकता। न ही मैं कोई धनाढ्य परिवार से हूँ कि एक बङी राशि इन चीजों पर व्यय कर सकूँ। अब ये तो फिर भी अपनी अपनी व्यक्तिगत राय है, कई लोग यह पढ़कर मेरे ऊपर हँसेंगे, कोई उनलोगों पर भी हँस सकते हैं। अगर मैं रूपये ख़र्च करूँगा भी तो इन चीजों पर नहीं, मैं कुछ किताबें खरीदूँगा (अधिकतर कंप्यूटर संबंधित ही रहेंगी), अधिक गति का इंटरनेट कनेक्शन का पैकेज लूँगा। अगर कभी अधिक खर्च करने का सामर्थ्य रहा तो कुछ कम्प्यूटर उपकरण खरीदूँगा, कोई सॉफ्टवेयर या फिर कोई हाई-टेक खिलौना... कोई इलेकट्रॉनिक गैजेट खरीदूँगा।

मेरे अन्य सहपाठीगण मुझे भी सलाह देते हैं या कभी कभी उकसाते हैं कि मैं भी ज़िम जाऊँ, छाती व बाहों की माँसपेशियाँ विकसित करूँ, नये नये डिज़ाईनों के (फटे हुए, कटे हुए, अजीब अजीब पॉकेटों वाले) जीन्स की पैंट, अजीबोगरीब चित्रों, संख्याओं या पाठ मुद्रित किये हुए टी-शर्ट धारण करूँ। फॉर्मल चमङे के जूतों की बजाय, स्पोर्ट्ज़ शूज़ या चमक दमक वाले सैंडिल पहनूँ। मैंने कई बार उन धुरंधर लोगों से पूछा कि क्यों भई, मैं भी ऐसा क्यों करूँ, आखिर इससे क्या होगा। तो उत्तर मिला करता – “तुम्हें भी ऐसा करना चाहिए, लङकियाँ इम्प्रेस होती हैं।” ये तो एक छोटा सा नमूना है, बालों का स्टाईल और हरेक चीज उनके लिए लङकियों को इम्प्रेस्स करने का साधन है। उनकी बातों को सुनकर कभी कभी तो मुझे लगता है कि ये लोग मूत्र-विसर्जन के तरीके में भी ऐसा ही कुछ तलाशते हैं कि जिससे लङकियाँ इम्प्रेस्स हों। इसके अलावा उनके द्वारा बोले गये सौ मैं से सत्तर शब्द गालियाँ ही होती हैं। अजीब ज़माना आ गया है।

ऐसा नहीं कि मैं हमेशा किताबों में ही उलझा हुआ रहने वाला व्यक्ति हूँ, पर हाँ कंप्यूटरों में चाहे जितनी देर कहें मैं उलझा हुआ रह सकता हूँ। आखिर चीज़ ही ऐसी है। और इसमें प्रयोग में लाए जाने वाले सॉफ्टवेयर या मेरे लिए नई प्रोग्रामिंग भाषा, या कोई अन्य तकनीक सीखने के लिए किताबों की परम आवश्यकता होती है। चूँकि मैं एक औसत परिवार से हूँ, और एक नियत राशि मेरे पिताजी द्वारा मेरे लिए प्रेषित की जाती है फिर भी मैं मँहगी से मँहगी किताब खरीद लेता हूँ, चाहे कोई कमीज खरीदनी हो तो मैं बाद में खरीदूँगा। इसलिए मेरे पास एक छोटी मोटी पुस्तकालय है विशेषकर कम्प्यूटर से संबंधित किताबों की। जब से मैंने कम्प्यूटर क्षेत्र में कदम रखा, इन कम्प्यूटरों से गहरी आसक्ति उसी समय से लेकर है और उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है।

वैसे तो 1998 में बिहार माध्यमिक परीक्षा 65 प्रतिशत के साथ उत्तीर्ण की। उसके बाद ही मैंने सोचा था कि कम्प्यूटर चलाने भर की जानकारी ले लूँ, और यह इच्छा अत्यंत प्रबल भी थी। पर भला हो बिहार की उस समय की तात्कालिक शिक्षा-नीति और एक कम्प्यूटर शिक्षण-संस्थान में कार्यरत एक बंधु की निःशुल्क सलाह का कि मैं उस समय अपनी यह इच्छा पूरी न कर सका। उस समय बिहार शिक्षा-नीति के अनुसार हमें अंग्रेजी छठे वर्ग से सिखानी शुरू की जाती थी। वर्ग छः में A B C D से सीखना शुरू किया, गाँवों में वैसे भी उतने अंग्रेजी पढ़ाने वाले लोग न थे, तो बिना किसी बाहरी ट्यूश़न इत्यादि के मैं तो अंग्रेजी न सीख सका। पर हम सब यह सोच के गनीमत मानते थे कि चलो माध्यमिक परीक्षा में अंग्रेजी विषय में उत्तीर्ण अथवा अनुतीर्ण होने से कोई फर्क नहीं पङता था, छात्र पास ही होते थे। मैंने तो खैर इस विषय में भी उत्तीर्ण करने लायक अंक अर्जित कर लिया था। हाँ तो, माध्यमिक की परीक्षा लिख चुकने के बाद मैंने सोचा कि अभी परिणाम घोषित होने और इंटर में दाखिले तक तो 6 या 7 महीने लगेंगे ही, तबतक कम्प्यूटर का कोई कोर्स कर लिया जाय। सो मैं पटना में एक कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट में पहुँच गया, कहा “मुझे कम्प्यूटर सीखना है।” वहाँ बैठे सज्जन ने पूछा – “कौन सा कोर्स करना है?”
अब भला उस समय मुझे क्या पता था कि कौन कौन से कोर्स होते हैं। सो मैंने कहाँ सबसे कम समय वाला कोर्स बताइये, बस मैं कम्प्यूटर ऑपरेट करने भर का ज्ञान चाहता हूँ।
उस भले आदमी ने मुझे बहुत सारे कोर्सेस के बारे में बताया जो उस संस्था द्वारा संचालित किये जा रहे थे। अन्त में उन्होंने ये भी बताया कि “आपके लिए यह छः माह का कोर्स जो कि डी. सी. ए. (डिप्लोमा इन कम्प्यूटर एप्लिकेशन्स) था, अच्छा रहेगा।” फीस बताई 7000 रू., मैं तो तभी से हङक गया। अन्त में उन्होंने यह भी जोङा कि “इसके लिए आपको एक्सेलेन्ट इंग्लिश आनी चाहिए, साथ ही अगर आप इंटर में एडमिशन ले रहे हैं तो आप यहाँ एडमिश़न न लें क्योंकि आप दोनों पढ़ाई एक साथ नहीं कर पाएँगे। कंप्यूटर सीखना कोई मज़ाक का काम नहीं है। पैसे मुझे काटते नहीं हैं, अगर आप कहें तो मैं एडमिशन ले लेता हूँ।”
अब तो मेरा वहाँ रूकने का कोई प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि मुझे अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती थी, और उन सज्जन ने साफ शब्दों में कह ही दिया था कि दोनों कोर्स आप एक साथ नहीं पढ़ पाएँगे, अतः कम्प्यूटर सीखने की इच्छा को दबाया और वहाँ से खिसक लिया।

पटना के कॉलेज ऑफ कॉमर्स में इंटर (कला) में एडमिशन लिया और 2000 में 70 प्रतिशत अंकों के साथ इंटर की परीक्षा पास कर ली। जब मैंने इंटर की परीक्षा लिखी थी, उसके कुछ दिनों के उपरांत ही मैंने एक विज्ञापन पढ़ा, कि राष्ट्रीय कम्प्यूटर साक्षरता मिशन वाले हिन्दी में कम्प्यूटर सिखा रहे हैं, वो भी मुफ्त में। मैंने सोचा कि यह तो सोने पर सुहागा हो गया। पहुँच गया वहाँ, नामांकन करवा लिया, हालाँकि पूर्णतः निःशुल्क नहीं था पर 1800 रूपये बहुत अधिक भी नहीं थे छः माह के डी.सी.ए. कोर्स के लिए। बस इसी कोर्स के दौरान कम्प्यूटर से लगाव हुआ और अबतक बढ़ता ही जा रहा है।

डी.सी.ए. का कोर्स चल ही रहा था कि मुझे पता चला कि पटना में ही एक नया संस्थान जो कि माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से मान्यता प्राप्त है, बी.सी.ए. करवा रहा है। उस समय मेरे इंटर के परिणाम आ चुके थे, बस फिर क्या था फटाफट नामांकन करवा लिया। नामांकन तो हो गया, पढ़ाई भी शुरू हो गई, डी.सी.ए. में कम्प्यूटरों से संबंधित मौलिक व आधारभूत ज्ञान अच्छा हो गया था, मगर बी.सी.ए. अंग्रेजी माध्यम में था। अब मुझे नानी याद आ गई, अंग्रेजी तो बिल्कुल आती ही नहीं थी। फिर हिन्दी-इंग्लिश ट्रांसलेशन की एक किताब खरीदी और अंग्रेजी में वाक्य रचना (अलग-अलग कालों में) सीखी। पर समस्या यहीं तक नहीं थी, कभी अंग्रेजी से पाला ही नहीं पङा था, शब्दों के मायने समझ में न आते थे। करूँ तो क्या करूँ......अब मेरे एक हाथ में कम्प्यूटर की किताब होती थी, तो दूसरे में शब्दकोष। दिन-रात एक करना पङा, कई कई रातों तक रतजगा किये रहता था और एक एक शब्द का अर्थ ढूँढ़ ढूँढ़कर पढ़ता रहता था। फिर त्रुटिपूर्ण अंग्रेजी में नोट्स लिखा करता था। वे दिन मेरे लिए सर्वाधिक कष्टकर थे। मेरे पास कम्प्यूटर न होने के कारण मैं कम्प्यूटर लैब में ही आठ-नौ घंटे बिता दिया करता था। जिज्ञासा का बाहुल्य था पर साधनों की कमी। वहाँ से घर आने के बाद मैं घर के करीब में ही एक नये खुले छोटे से इंस्टीट्यूट में जाता था कम्प्यूटर पर अभ्यास करने के लिए। हमेशा पाठ्यक्रम के अलावा अन्य चीजों में भी रूचि रहती, हरेक एप्लिकेशन, और हर वो चीज जो कम्प्यूटर से जुङी हो, मैं सीख जाना चाहता था। दिन हो या रात, मेरे दिमाग में बस यही चीजें रहतीं थीं। मैंने इसी दौरान असेम्बलिंग और इंस्टॉलेशन भी सीख लिया।

बी.सी.ए. के द्वितीय सेमेस्टर में मैंनें अपना पी.सी. असेम्बल कर लिया। मुझे मानों मेरी दुनिया मिल गयी थी। मुझे दिनरात कम्प्यूटर पर सी में प्रोग्रामिंग करना आज भी याद आता है। दिन बीतते रहे, मैं नित नयी चीजें सीखता गया, अंग्रेजी में भी सुधार होता गया, फिर भी और ज्यादा सीखने की चाह बढ़ती गयी। बी.सी.ए. के दौरान ही मैंने नेटवर्किंग, लाइनक्स, वेब व ग्राफिक्स डिजाईनिंग, ए.एस.पी., पी. एच. पी.+ माई एस. क्यू. एल. में वेब प्रोग्रामिंग, सिस्टम एडमिनिस्ट्रेशन इत्यादि चीजें स्वअध्य्यन से सीखीं जो कि पाठ्यक्रम के अलावा थीं। सबसे अधिक रोमांचित करनेवाली चीज़ जो मैंने स्वयं (किताबों या वेबसाइट्स) से सीखीं वो है – हैकिंग। मैं यहाँ यह नहीं बता सकता कि हैकिंग में मेरी क्या क्या उपलब्धियाँ रहीं।

बी.सी.ए. में मैं 72 प्रतिशत अंक प्राप्त कर सका। इसके बाद मैंने हैदराबाद की ओर रुख़ किया ताकि कुछ बेहतर सीख सकूँ व रोजी-रोटी का भी इंतजाम हो पाये। यहाँ मैंने मुफ्फ़कम जा कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी, (ओस्मानिया विश्वविद्यालय से संबद्ध) से एम.सी.ए. किया। अभी-अभी अंतिम परीक्षा समाप्त हुई है। यहाँ एम.सी.ए. के तीन साल कैसे गुजरे, यह एक अलग कहानी है। दो सालों से मैं ना अपने घर गया ना ही किसी परिवारवालों से मिला। पर संतोष है कि गूगल ने मुझे योग्य समझा और कैम्पस से चयन कर लिया। अब बस प्रतीक्षा कर रहा हूँ,.....गूगल के प्रस्ताव पत्र (ऑफर लेटर) का।